दोनों हाथों को जोड़कर जो मुद्रा बनती है, उसे प्रणाम मुद्रा कहते हैं। जब दोनों हाथों की सभी अँगुलियाँ -अंगुष्ठ से अंगुष्ठ, तर्जनी से तर्जन...
दोनों हाथों को जोड़कर जो मुद्रा बनती है, उसे प्रणाम मुद्रा कहते हैं। जब दोनों हाथों की सभी अँगुलियाँ -अंगुष्ठ से अंगुष्ठ, तर्जनी से तर्जनी, मध्यिका से मध्यिका, अनामिका से अनामिका एवं कनिष्का से कनिष्का मिलती है तो शरीर के, जो ब्रह्मांड का एक छोटा रूप माना जाता है, उत्तरी ध्रुव (बायाँ हाथ) एवं दक्षिण ध्रुव (दायाँ हाथ) के मिलन से एक चक्र पूर्ण होता है, क्योंकि बाएँ हाथ में स्थित सभी बारह राशियों का संपर्क दाहिने हाथ में स्थित सभी बारह राशियों से परस्पर होता है।
अँगूठा : सबसे पहली अँगुली को अँगूठा या अंगुष्ठ कहते हैं। इसका स्थान सबसे महत्वपूर्ण होता है। यह अन्य चारों अँगुलियों का मुख्य सहायक है। इसकी सहायता के बगैर अन्य चारों उँगलियाँ कार्य संपन्न नहीं कर सकतीं। संभव है इसी के कारण गुरु द्रोण ने एकलव्य से उसका अँगूठा ही गुरुदक्षिणा में माँग लिया था।
बंद मुट्ठी से अँगूठे को बाहर निकालकर दिखाने को अँगूठा दिखाना या ठेंगा दिखाना कहा जाता है, जिसका तात्पर्य हमारे यहाँ किसी कार्य को करने से मना करना समझा जाता है। परंतु पश्चिमी सभ्यता में ठीक उलटा यानी थम्स आपको कार्य करने की स्वीकृति समझा जाता है। यूँ तो दुनिया में कई करोड़ मनुष्य हैं, परंतु जिस प्रकार सबकी मुखाकृति भिन्न होती है, उसी प्रकार सभी के अँगूठों के निशान भी भिन्न होते हैं। इसी कारण अपराध जगत में थम्ब इम्प्रेशन का महत्व काफी होता है।
तर्जनी : यह सबसे ऊर्जावान अँगुली होती है। हमारे यहाँ विश्वास किया जाता है कि जो बच्चा जितने अधिक दिनों तक अँगुली पकड़कर चलता है, वह बड़ों से उतनी ही ऊर्जा प्राप्त करता है। उसका विकास भी उतनी ही तीव्र गति से होता है। तर्जनी की ऊर्जा इतनी अधिक होती है कि कुछ फल मात्र इसके संकेत से ही मर जाते हैं। देखिए तुलसीदासजी लिखते हैं- 'इहां कम्हड़ बतिया कोउ नाहीं, जो तर्जनी देखि मर जाहीं।' ऐसी मान्यता भारत के अलावा अन्य कई देशों में भी है कि नन्हे फल तर्जनी के संकेत से मर जाते हैं।
इसलिए वहाँ किसी को तर्जनी दिखाना अच्छा नहीं माना जाता। तर्जनी का प्रयोग लिखने के लिए अथवा मुख्य कार्य के लिए होता है, जिसके सहायक मध्यिका एवं अँगूठा होते हैं। इसकी ऊर्जा का अंदाज मात्र इस बात से लगाया जा सकता है कि किसी भी प्रकार का जप करते समय माला के किसी भी मनके से इसका स्पर्श पूर्णतया वर्जित है।
मध्यिका : यह हाथ की सबसे लंबी अँगुली तो है परंतु इसका मुख्य कार्य तर्जनी की सहायता करना है। संभवतः इसी कारण जाप में मनकों से इसका भी स्पर्श निषिद्ध माना जाता है।
अनामिका : यह एक अत्यंत महत्वपूर्ण अँगुली है। इसका सीधा संबंध हृदय से होता है। अतः सभी शुभ कार्यों में इसकी मान्यता सबसे अधिक है। इसी कारण जप की माला का संचरण इसके एवं अँगूठे की सहायता से किया जाता है। धार्मिक कृत्यों हेतु कुशा भी इसी उँगली में धारण की जाती है।
ग्रहों और नक्षत्रों से संबंधित लगभग सभी रत्न अँगूठी के माध्यम से इसी में धारण किए जाते हैं, जिसके पीछे कारण यह है कि वे रत्न सूर्य से वांछित ऊर्जा प्राप्त कर जातक (धारण करने वाले) को प्रदान करते हैं, जिससे उसके भीतर वांछित ऊर्जा की कमी दूर होती है। वे लोग जो मंत्रों का जप अँगुली के माध्यम से करते हैं, अपनी गणना इसी उँगली से प्रारंभ करते हैं।
कनिष्का : यह हाथ की सबसे छोटी अँगुली है, जो हर प्रकार से अनामिका की सहायता करती है। इसे अनामिका की सहायक कहा जाता है।
अन्य : किसी-किसी व्यक्ति के हाथ में छः अँगुलियाँ भी होती हैं। लोगों का विश्वास है कि जिन पुरुषों के दाहिने हाथ में एवं जिन स्त्रियों के बाएँ हाथ में छः उँगलियाँ होती हैं, वे बड़े भाग्यशाली होते हैं। ज्योतिष विद्या के अनुसार बारहों राशियों का स्थान प्रत्येक अँगुली के तीन पोरों (गाँठों) में इस प्रकार होता है-
कनिष्का : मेष, वृष, मिथुन अनामिका : कर्क, सिंह, कन्या मध्यिका : तुला, वृश्चिक, धनु तर्जनी : मकर, कुंभ, मीन।
शरीर का निर्माण पाँच तत्वों से हुआ है- अग्नि, वायु, आकाश, पृथ्वी और जल। इसका भी निवास क्रमशः अँगूठा, तर्जनी, मध्यिका, अनामिका एवं कनिष्ठा में माना जाता है। दो या दो से अधिक अँगुलियों के मेल से जो यौगिक क्रियाएँ संपन्न की जाती हैं, उन्हें योग मुद्रा कहा जाता है, जो इस प्रकार हैं-
1. वायु मुद्रा : यह मुद्रा तर्जनी को अँगूठे की जड़ में स्पर्श कराने से बनती है। 2. शून्य मुद्रा : यह मुद्रा बीच की अँगुली मध्यिका को अँगूठे की जड़ में स्पर्श कराने से बनती है। 3. पृथ्वी मुद्रा : यह मुद्रा अनामिका को अँगूठे की जड़ में स्पर्श कराने से बनती है। 4. प्राण मुद्रा : यह मुद्रा अँगूठे से अनामिका एवं कनिष्का दोनों के स्पर्श से बनती है। 5. ज्ञान मुद्रा : यह मुद्रा अँगूठे को तर्जनी से स्पर्श कराने पर बनती है। 6. वरुण मुद्रा : यह मुद्रा दोनों हाथों की अँगुलियों को आपस में फँसाकर बाएँ अँगूठे को कनिष्का का स्पर्श कराने से बनती है। सभी मुद्राओं के लाभ अलग-अलग हैं।
दोनों हाथों को जोड़कर जो मुद्रा बनती है, उसे प्रणाम मुद्रा कहते हैं। जब ये दोनों लिए हुए हाथ मस्तिष्क तक पहुँचते हैं तो प्रणाम मुद्रा बनती है। प्रणाम मुद्रा से मन शांत एवं चित्त में प्रसन्नता उत्पन्न होती है। अतः आइए, हेलो, हाय, टाटा, बाय को छोड़कर प्रणाम मुद्रा अपनाएँ और चित्त को प्रसन्न रखें।
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